राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार- 2018

राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों से हिंदी वालों को थोड़ा संतोष हुआ होगा क्योंकि दादा साहेब फाल्के पुरस्कार दिवंगत बॉलिवुड अभिनेता विनोद खन्ना को दिया गया है। वहीं सर्वश्रेष्ठ अभिनेत्री का पुरस्कार श्रीदेवी को मरणोपरांत फिल्म मॉम के लिए दिया गया है। जहां तक विषयों के चयन, कलात्मक गुणवत्ता और प्रयोग की बात है, तो क्षेत्रीय सिनेमा अब भी बॉलिवुड पर भारी है।
सर्वश्रेष्ठ फिल्म का पुरस्कार इस बार असमिया फिल्म विलेज रॉकस्टार को मिला है। यही नहीं, सर्वश्रेष्ठ संपादन और सबसे अच्छे लोकेशन साउंड (स्थानीय ध्वनि) का पुरस्कार भी विलेज रॉकस्टार को ही मिला है। इसी फिल्म की भनिता दास को सर्वश्रेष्ठ बाल कलाकार का राष्ट्रीय पुरस्कार देने की घोषणा की गई है।
सर्वश्रेष्ठ लोकप्रिय फिल्म का पुरस्कार बाहुबली द कन्क्लूजन को दिया गया जबकि सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार बांग्ला फिल्म नगर कीर्तन के लिए ऋद्धि सेन को मिला है। इसी फिल्म ने सर्वश्रेष्ठ छायांकन और पटकथा का पुरस्कार भी जीता है। गौर करने की बात है कि विलेज रॉकस्टार असम की कामरूपी बोली में बनाई गई है। आज अनेक स्थानीय भाषाओं और बोलियों में भी फिल्में बन रही हैं। जैसे लद्दाखी में कई फिल्में बनी हैं। यह निश्चित रूप से फिल्म तकनीक के सर्वसुलभ होने का असर है। प्रतिभावान युवा छोटी से छोटी जगह में भी फिल्में बना रहे हैं।
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों ने उन पर ध्यान दिया है, जो अच्छी बात है। नैशनल फिल्म अवार्ड पूरे देश के सिनेमा परिदृश्य को सामने लाते हैं। इससे सभी को एक-दूसरे को परखने का अवसर मिलता है। हिंदी सिनेमा का पिछले कुछ समय से दक्षिण के फिल्म जगत खासकर तेलुगू और तमिल सिनेमा से तालमेल और संवाद बढ़ा है। हिंदी के दर्शकों के लिए दक्षिण का परिवेश सुपरिचित हो गया है। लेकिन असमिया, बांग्ला और मलयाली फिल्मों से बॉलिवुड का संवाद कम हो गया लगता है।
बीच में भूपेन हजारिका के जरिए असमिया से थोड़ा परिचय बना था, लेकिन यह यात्रा फिर रुक गई। बांग्ला से हिंदी में काफी समय से कुछ नहीं आया। हिंदी से न्यूटन का चयन खुद में एक संदेश है, जिसे समझने की जरूरत है। तड़क-भड़क और तकनीक का खेल नहीं, प्रासंगिक कथानक और दमदार अभिनय ही अच्छी फिल्मों की कसौटी है। बॉलिवुड अब फॉर्म्युलों से बाहर निकल रहा है और यहां भी सार्थक विषयों वाली फिल्में बनने लगी हैं।
आने वाले समय में राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कारों में इसका हिस्सा जरूर बढ़ेगा। इस बार निर्णय प्रक्रिया को अधिक जनतांत्रिक बनाने की कोशिश की गई है। जूरी में विभिन्न स्तरों पर छोटे-छोटे शहरों के लेखक, कलाकार और टिप्पणीकार शामिल किए गए। इस तरह निर्णायकों में मुंबई-दिल्ली का दबदबा घटा है और मूल्यांकन की दृष्टि व्यापक हुई है।

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